
प्रभु ने सृष्टि की रचना ही नहीं की उसका संचालन भी कर रहा है। जितनी अद्भुत रचना है उतना ही अद्वितीय संचालन भी है। उसने वायु बनाई और जल उत्पन्न किया। जल के संरक्षण के लिए धरती बनाई और उस धरती को ही जल पर टिका दिया। पानी के सिंचन से वनस्पतियां हरी भरी हुई, विकसित हुई।
वायु-जल-अग्नि ये तीनों परस्पर विरोधी तत्व हैं किंतु परमात्मा ने इन तत्वों को एक साथ रखकर उनमें सामंजस्य स्थापित कर दिया। इसी तरह सृष्टि, जो इन मूल तत्वों पर टिकी है, के संचालन में भी विलक्षण प्रकट होती है। सबसे बडी विशिष्टता है कि सृष्टि दो धुर विरोधी तत्वों से संचालित हो रही है। एक ओर सृजन हो रहा है दूसरी ओर जो सृजित हो चुका है उसका विनाश हो रहा है। यह सृजन और विनाश की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। सृष्टि में उपस्थित प्रत्येक रचना की एक निश्चित आयु है जिसके उपरांत उसे नष्ट होना है। &द्यह्ल;क्चक्त्र&द्दह्ल;&ड्डद्वश्च;ठ्ठढ्डह्यश्च;&ड्डद्वश्च;ठ्ठढ्डह्यश्च; सृजन और विनाश के माध्यम से परमात्मा मनुष्य को पल-पल संदेश दे रहा है कि मनुष्य विनाश के बारे में भूल न जाए। यदि मनुष्य की स्मृति में क्षणभंगुरता रहती है तो कदाचित् वह अहम् से विरत रहेगा, दुष्कर्मो से विमुख रहेगा और प्रभु की ओर उन्मुख होगा। जिसकी शरण में है उसके जीवन का उद्धार है। मृत्यु निश्चित है किंतु पता नहीं कि उसकी आयु कितनी है। आयु कई वर्षो की, महीनों की, पलों की अथवा पल भर की भी हो सकती है। अत:मनुष्य की वस्तुत:आयु उसी एक पल की है जिसे वह जी रहा है। सृष्टि में विनाश की चल रही प्रक्रिया यही बता रही है। कौन सा पत्ता शाख से अलग होकर कब गिर पडेगा कहा नहीं जा सकता। किंतु यह विनाश हताशा और निराशा की ओर ले जाने वाला नहीं है। विनाश है तो सृजन भी हो रहा है। इससे परमात्मा में विश्वास दृढ होता है और सत् मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। मृत्यु के भय में जीवन को जीना असंभव है, किंतु मृत्यु के सत्य को जब स्वीकार कर लिया जाए और परमात्मा के न्याय पर विश्वास को टिकाते हुए उसकी शरण में जाकर स्व का समर्पण कर दिया जाए, तो जीवन परमात्मा के रस से सराबोर हो जाता है और जिसे परमात्मा का रस मिल जाए उसके आनंद की सीमा नहीं रहती। बाकी सभी रस फीके लगने लगते हैं।
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