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Monday, April 5, 2010

हरियाली ओढे, सीढीनुमा खेतों से सजी, स्वास्थ्यव‌र्द्धक चीड व अन्य वृक्षों से आबाद पहाडियों के बीच मैदाननुमा खुली जगह पर चारों ओर भीड लगी है। सुंदर, सजीली, भोली, लजीली, कोमल पहाडी युवतियां मेले में पारंपरिक सलवार कुर्ता, घाघरा पहने सर पर चटकीले रंगबिरंगे ढाठू बांधे, मेले में लगी दुकानों पर खिलखिलाते हुए मंडरा रही हैं। उधर मैदान के हर ओर हजारों गांववासी मनपसंद परिधानों में जमे हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं। गप्पे लड रही हैं, आंखें मटक रही हैं। पुराने संबंधियों व मित्रों से मुलाकातों के बीच अपनी पसंद का साथी खोजा जा रहा है। कहीं रोमांस भी अंकुरित हो रहा है। पहाडी नाटी के साथ साथ रीमिक्स भी बज रहा है। इसी सैलाब में बिखरे दूर-दूर से आए सैलानी भी खुद को माहौल के अनुरूप ढाल रहे हैं।

मैदान के आसपास रोमांच की सुगबुगाहट है, दर्शकों की बातचीत के बीच प्रतिस्पद्र्धा जवान हो रही है। मैदान के एक ओर से ढोल-नगाडे, शहनाई, रणसिंघा, करताल, मृदंग, दमामठू व तुरही की जोश बढाती रणभेरी सी आवाजों की बीच तलवारें, भाले, खुखरिया, डांगरे, लाठियां, बंदूकें व तीर-कमान लहराते हुए एक योद्धा दल युद्धस्थल की ओर बढ रहा है। मैदान के दूसरे छोर से आ रहा दूसरा दल भी जोश-खरोश के साथ अपने जौहर दिखाने को बेताब है। दोनों दलों के सदस्य व समर्थक कंधे उचकाकर एक-दूसरे के विरोधी लोकगीत गा रहे हैं। माहौल में उत्सव घुल गया है ठोडा के लिए सब तैयार हैं।

दुनिया में तीरंदाजी की कितनी ही शैलियां हैं मगर हिमाचल व उत्तराखंड की पर्वतावलियों के बाशिंदों की यह तीरकमानी अद्भुत व निराली है। माना जाता है कि कौरवों व पांडवों की यादें इन पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी हैं। ठोडा योद्धाओं में एक दल पाशी (पाश्ड, पाठा, पाठडे) यानी पांच पांडवों का है और दूसरा शाठी (शाठड, शाठा, शठडे) यानी कौरवों का। जनश्रुतियों के अनुसार कौरव साठ थे सो शाठड (साठ) कहे जाते हैं। कभी कबीलों में रह चुके यह दल अपने को कौरवों व पांडवों के समर्थन में लडे योद्धाओं का वशंज मानते हैं।

पहले ठोडा हो जाए

इसके लिए धनुर्धारी कमर से नीचे मोटे कपडे, बोरी या ऊन का घेरेदार वस्त्र लपेटते हैं या फिर चूडीदार वस्त्र (सूथन) पहनते हैं। मोटे-मोटे बूट, कहीं-कहीं भैंस के चमडे से बनाए गए घुटनों तक के जूते साधारण कमीज व जैकेट धारण होता है। पहाडी संस्कृति के विद्वान बताते हैं कि ठोडा का धणु (धनुष) डेढ से दो मीटर लंबा होता है और चांबा नामक एक विशेष लकडी से बनाया जाता है। शरी (तीर) धनुष के अनुपात में एक से डेढ मीटर का होता है और स्थानीय बांस की बीच से खोखली लकडी नरगली या फिरल का बनाया जाता है, जिसके एक तरफ खुले मुंह में अनुमानत दस बारह सेंटीमीटर की लकडी का एक टुकडा फिक्स किया जाता है जो एक तरफ से चपटा व दूसरी तरफ से पतला व तीखा होता है और नरगली के छेद से गुजारा जाता है। चपटा जानबूझ कर रखा जाता है ताकि प्रतिद्वंद्वी की टांग पर प्रहार के समय लगने पर ज्यादा चोट न पहुंचे। दिलचस्प यह है कि इस लकडी को ही ठोडा कहते हैं। इस खेल युद्ध में घुटने से नीचे तीर सफलता से लगने पर खिलाडी को विशेष अंक दिए जाते हैं। वहीं घुटने से ऊपर वार न करने का सख्त नियम है। जो करता है उसे फाउल करार दिया जाता है। ठोडा में अपने चुने हुए प्रतिद्वंद्वी की पिंडली पर निशाना साधा जाता है, दूसरे प्रतिद्वंद्वी पर नहीं। जिस व्यक्ति पर वार किया जाता है वह हाथ में डांगरा लिए नृत्य करते हुए वार को बेकार करने का प्रयास करता है। बच जाता है तो वह प्रतिद्वंद्वी का मजाक उडाता है, मसखरी करता है। इस तरह खेल-खेल में मनोरंजन हो जाता है और ठोडा खेलने वालों का जोश भी बरकरार रहता है। फिर दूसरा खिलाडी निशाना साधता है। लगातार जोश का माहौल बनाने वाले लोक संगीत के साथ-साथ खेल यूं ही आगे बढता रहता है। कई बार खेलने वाले जख्मी हो जाते हैं मगर ठोडा के मैदान में कोई पीठ नहीं दिखाता। खेल की समयावधि सूर्य डूबने तक निश्चित होती है। शाम उतरती है तो थकावट चढती है और रात मनोरंजन चाहती है। स्वादिष्ट स्थानीय खाद्यों के साथ मांस, शराब पेश की जाती है और नाच-गाना होता है। अगले दिन फिर ठोडा आयोजित किया जाता है।

पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है मगर खुशी गम और जरूरत के मौसम में वे मिलते-जुलते हैं और एक दूसरे के काम आते हैं। उनमें आपस में रिश्तेदारियां भी हैं। जब बिशु (बैसाख का पहला दिन) आता है तो पुरानी नफरत थोडी सी जवान होती है, गांव-गांव में युद्ध की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिसे किसी वर्ष शाठी आयोजित करते हैं तो कभी पाशी। कबीले का मुखिया बिशु आयोजन के दिन प्रात: कुलदेवता की पूजा करता है और अपने सहयोगियों के साथ ठोडा खेलने आ रहे लोगों के आतिथ्य और अपनी जीत के लिए मंत्रणा करता है। युद्ध प्रशिक्षण का अवशेष माने जाने वाले ठोडा में खेल, नृत्य व नाट्य का सम्मिश्रण है। धनुष बाजी का खेल, वाद्यों की झंकार में नृत्यमय हो उठता हैं। खिलाडी व नाट्य वीर रस में डूबे इसलिए होते हैं क्योंकि यह महाभारत के महायुद्ध से प्रेरित है। भारतीय संस्कृति के मातम के मौसम में पहाड वासियों ने लुप्त हो रही सांस्कृतिक परंपरा को जैसे-तैसे करके जीवित रखा है। कौशल, व्यायाम व मनोरंजन के पर्याय ठोडा को हमारी लोक संस्कृति के कितने ही उत्सवों में जगह मिलती है जहां पर्यटक भी होते हैं और स्थानीय लोग भी।

कहां, कब व कैसे

ठोडा आम तौर पर हर साल बैसाखी के दो दिनों- 13 व 14 अप्रैल को होता है। शिमला जिले के ठियोग डिवीजन, नारकंडा ब्लॉक, चौपाल डिवीजन, सिरमौर व सोलन में कहीं भी इसका आनंद लिया जा सकता है। नारकंडा, सिरमौर व सोलन- इन सभी स्थानों पर ठहरने की पर्याप्त व्यवस्था है।



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